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शेर
इक टीस जिगर में उठती है इक दर्द सा दिल में होता है
हम रात को रोया करते हैं जब सारा आलम सोता है
ज़िया अज़ीमाबादी
शेर
एक धुँदला सा तसव्वुर है कि दिल भी था यहाँ
अब तो सीने में फ़क़त इक टीस सी पाता हूँ मैं
आग़ा हश्र काश्मीरी
शेर
हमारे मय-कदे में ख़ैर से हर चीज़ रहती है
मगर इक तीस दिन के वास्ते रोज़े नहीं रहते
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
गरचे गुल की सेज हो तिस पर भी उड़ जाती है नींद
सर रखूँ क़दमों पे जब तेरे मुझे आती है नींद
मह लक़ा चंदा
शेर
एक तो मर्ज़ी न थी जाने को मेरी उस तरफ़
तिस पे दिल आँखों से बाराँ ख़ूँ का बरसाता रहा
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
मुवाफ़क़त हो जो ताले की उस की मज्लिस में
तो हम भी क़हर हैं जिस तिस से साज़ करने को