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शेर
तमाम यादें महक रही हैं हर एक ग़ुंचा खिला हुआ है
ज़माना बीता मगर गुमाँ है कि आज ही वो जुदा हुआ है
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
शेर
जिगर मुरादाबादी
शेर
अज़ीज़ान-ए-वतन को ग़ुंचा ओ बर्ग ओ समर जाना
ख़ुदा को बाग़बाँ और क़ौम को हम ने शजर जाना
चकबस्त बृज नारायण
शेर
तू ने क्या देखा नहीं गुल का परेशाँ अहवाल
ग़ुंचा क्यूँ ऐंठा हुआ रहता है ज़रदार की तरह
इश्क़ औरंगाबादी
शेर
कभी बे-कली कभी बे-दिली है अजीब इश्क़ की ज़िंदगी
कभी ग़ुंचा पे जाँ फ़िदा कभी गुल्सिताँ से ग़रज़ नहीं