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शेर
उस को फ़ुर्सत भी नहीं मुझ को तमन्ना भी नहीं
फिर ख़लिश क्या है कि रह रह के वफ़ा ढूँढती है
किश्वर नाहीद
शेर
बहज़ाद लखनवी
शेर
अभी तो कुछ ख़लिश सी हो रही है चंद काँटों से
इन्हीं तलवों में इक दिन जज़्ब कर लूँगा बयाबाँ को