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शेर
बा'द रंजिश के गले मिलते हुए रुकता है दिल
अब मुनासिब है यही कुछ मैं बढ़ूँ कुछ तू बढ़े
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
दिखाने को नहीं हम मुज़्तरिब हालत ही ऐसी है
मसल है रो रहे हो क्यूँ कहा सूरत ही ऐसी है
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
मुज़्तरिब हैं मौजें क्यूँ उठ रहे हैं तूफ़ाँ क्यूँ
क्या किसी सफ़ीने को आरज़ू-ए-साहिल है
अमीर क़ज़लबाश
शेर
सुना है मोहतसिब भी ताक में है दुख़्तर-ए-रज़ की
इलाही रख ले तू हुर्मत शराब-ए-अर्ग़वानी की
मोहसिन काकोरवी
शेर
अदब बख़्शा है ऐसा रब्त-ए-अल्फ़ाज़-ए-मुनासिब ने
दो-ज़ानू है मिरी तब-ए-रसा तरकीब-ए-उर्दू से