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शेर
पी बादा-ए-अहमर तो ये कहने लगा गुल-रू
मैं सुर्ख़ हूँ तुम सुर्ख़ ज़मीं सुर्ख़ ज़माँ सुर्ख़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
घटाएँ ऊदी ऊदी मै-कदा बर-दोश-ए-फ़स्ल-ए-गुल
न जाने लग़्ज़िश-ए-तौबा से ईमानों पे क्या गुज़री
वहशी कानपुरी
शेर
वो भला कैसे बताए कि ग़म-ए-हिज्र है क्या
जिस को आग़ोश-ए-मोहब्बत कभी हासिल न हुआ
हबीब अहमद सिद्दीक़ी
शेर
पाकी-ए-दामान-ए-गुल की खा न ऐ बुलबुल क़सम
रात भर सरशार-ए-कैफ़िय्यत मैं शबनम से रहा
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
शेर
मोहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बे-दिमाग़ी है
कि मौज-ए-बू-ए-गुल से नाक में आता है दम मेरा
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
'कैफ़' यूँ आग़ोश-ए-फ़न में ज़ेहन को नींद आ गई
जैसे माँ की गोद में बच्चा सिसक कर सो गया
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
शेर
क़फ़स से छुट के वतन का सुराग़ भी न मिला
वो रंग-ए-लाला-ओ-गुल था कि बाग़ भी न मिला
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
यही हैं यादगार-ए-ग़ुंचा-ओ-गुल इस ज़माने में
इन्हीं सूखे हुए काँटों से ज़िक्र-ए-गुल्सिताँ लिखिए