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शेर
संग-परस्तों की बस्ती में शीशा-गरों की ख़ैर नहीं है
जिन की आँखें नूर से ख़ाली उन के दिल हैं आहन आहन
फ़ारूक़ नाज़की
शेर
मज़हर-ए-हक़ कब नज़र आता है इन शैख़ों के तईं
बस-कि आईने पर इन आहन-दिलों के ज़ंग है
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
सर काट क्यूँ जलाते हैं रौशन दिलाँ के तईं
आहन-दिली पे ख़ल्क़ की ख़ंदाँ हूँ मिस्ल-ए-शम्अ'
मिर्ज़ा दाऊद बेग
शेर
आस्तानों की क़दम-बोसी में पिन्हाँ ख़ून-ए-सर
और वुफ़ूर-ए-शौक़ में ये सर हो ख़म कुछ और है
अख़लाक़ अहमद आहन
शेर
कोई जलता है तमाशा बन के उस की बज़्म में
मैं ग़रीब-ए-शहर था पिन्हाँ का पिन्हाँ जल गया
अख़लाक़ अहमद आहन
शेर
ज़ात-ए-ख़ाकी की तहों में ख़ुफ़्ता हैं अनवा'-ए-ख़ाक
रंगहा-ए-तह-ब-तह का पेच-ओ-ख़म कुछ और है
अख़लाक़ अहमद आहन
शेर
लुटा ये कारवाँ कब का न जाने कौन थी मंज़िल
मगर अहबाब अब भी ज़ो'म-ए-चुग़्ताई में जीते हैं
अख़लाक़ अहमद आहन
शेर
ऐ जमाल-ए-बे-बदल लेकिन अदा में बे-रुख़ी
हो गईं सदियाँ कि चश्म-ए-तिश्ना तेरी मुंतज़िर