aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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आज इंसाँ को तपते सहरा मेंबहता दरिया तलाश करना है
रवाँ है उम्र और इंसान ग़ाफ़िलमुसाफ़िर है कि सोता जा रहा है
लहू में डूबी है तारीख़-ए-ख़िल्क़त-ए-इंसाँअभी ये नस्ल है शाइस्ता-ए-हयात कहाँ
पुरसान-ए-परेशानी-ए-इंसाँ नहीं कोईक़िस्मत की गिरह नाख़ुन-ए-तदबीर से खोलो
कूचा-ए-यार मरकज़-ए-अनवारअपने दामन में दश्त-ए-ग़म की ख़ाक
गुज़रे बहुत उस्ताद मगर रंग-ए-असर मेंबे-मिस्ल है 'हसरत' सुख़न-ए-'मीर' अभी तक
हर इक इंसान के आमाल भी यकसाँ नहीं होतेकोई घर तोड़ देता है कोई तामीर करता है
सदियों से मिरे पाँव तले जन्नत-ए-इंसाँमैं जन्नत-ए-इंसाँ का पता ढूँढ रही हूँ
जिस्म-ए-अनवर की लताफ़त की सना क्या कीजेजामा-ए-यार न उतरा कभी मैला हो कर
मुझे कुछ भी नहीं मालूम और अंदर ही अंदरलहू में एक दस्त-ए-राएगाँ फैला हुआ है
आज इंसाँ ने भुला डाले हैं यज़्दाँ के करमहम ने तो ज़ुल्म भी एहसान तिरे जाने हैं
चश्म-ए-इंकार में इक़रार भी हो सकता थाछेड़ने को मुझे फिर मेरी अना पूछती है
नाव काग़ज़ की तन-ए-ख़ाकी-ए-इंसाँ समझोग़र्क़ हो जाएँगी छींटा जो पड़ा पानी का
ग़म-ए-इंसाँ को सीने से लगा लोये ख़िदमत बंदगी से कम नहीं है
साया भी साथ छोड़ गया अब तो ऐ 'असर'फिर किस लिए मैं आज को कल से जुदा करूँ
उन से मिलने का मंज़र भी दिल-चस्प था ऐ 'असर'इस तरफ़ से बहारें चलीं और उधर से खिज़ाएँ चलीं
मस्जिद का ये माइक जो उठा लाए हो ऐ 'अनवर'क्या जानिए किस वक़्त अज़ाँ देने लगेगा
अब हयात-ए-इंसाँ का हश्र देखिए क्या होमिल गया है क़ातिल को मंसब-ए-मसीहाई
ज़ेर-ए-असर नहीं है किसी रहनुमा के हममालिक इसी लिए हैं ख़ुद अपनी रज़ा के हम
हर्फ़-ए-इंकार है क्यूँ नार-ए-जहन्नम का हलीफ़सिर्फ़ इक़रार पे क्यूँ बाब-ए-इरम खुलता है
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