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शेर
इस आलम-ए-वीराँ में क्या अंजुमन-आराई
दो रोज़ की महफ़िल है इक उम्र की तन्हाई
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
शेर
जो अर्ज़ां है तो है उन की मता-ए-आबरू वर्ना
ज़रा सी चीज़ भी बेहद गिराँ है इस ज़माने में
अहमक़ फफूँदवी
शेर
शहीदान-ए-वफ़ा की मंक़बत लिखते रहे लेकिन
न की अर्ज़ी ख़ुदाओं की कभी हम्द-ओ-सना हम ने
अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद
शेर
फ़ित्नों की अर्ज़ानी से अब एक इक तार आलूदा है
हम देखें किस किस के दामन एक भी दामन पाक नहीं