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शेर
ये जवाहिर-ख़ाना-ए-दुनिया जो है बा-आब-ओ-ताब
अहल-ए-सूरत का है दरिया अहल-ए-मा'नी का सराब
नज़ीर अकबराबादी
शेर
चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो
सरशार सैलानी
शेर
हाए ये हुस्न-ए-तसव्वुर का फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू
मैं ये समझा जैसे वो जान-ए-बहार आ ही गया
जिगर मुरादाबादी
शेर
ढूँढता फिरता है मुझ को क्यूँ फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू
मैं वहाँ हूँ ख़ुद जहाँ अपना पता मिलता नहीं