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शेर
लखनऊ में फिर हुई आरास्ता बज़्म-ए-सुख़न
बाद मुद्दत फिर हुआ ज़ौक़-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी मुझे
चकबस्त बृज नारायण
शेर
बज़्म-ए-याराँ है ये साक़ी मय नहीं तो ग़म न कर
कितने हैं जो मय-कदा बर-दोश हैं यारों के बीच
गणेश बिहारी तर्ज़
शेर
खुला ये दिल पे कि तामीर-ए-बाम-ओ-दर है फ़रेब
बगूले क़ालिब-ए-दीवार-ओ-दर में होते हैं
अज़ीज़ हामिद मदनी
शेर
शहर-ए-सुख़न में ऐसा कुछ कर इज़्ज़त बन जाए
सब कुछ मिट्टी हो जाता है इज़्ज़त रहती है