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शेर
हक़ीक़त खुल गई 'हसरत' तिरे तर्क-ए-मोहब्बत की
तुझे तो अब वो पहले से भी बढ़ कर याद आते हैं
हसरत मोहानी
शेर
उमीद-ए-वस्ल ने धोके दिए हैं इस क़दर 'हसरत'
कि उस काफ़िर की हाँ भी अब नहीं मालूम होती है
चराग़ हसन हसरत
शेर
क्या ख़ूब ‘बर्क़’ तू ने दिखाया है ज़ोर-ए-तब्अ
काग़ज़ पे रख दिया है कलेजा निकाल के
मुंशी राम रखा बर्क़
शेर
'जलील' इक शेर भी ख़ाली न पाया दर्द ओ हसरत से
ग़ज़ल-ख़्वानी नहीं ये दर-हक़ीक़त नौहा-ख़्वानी है