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शेर
फूल तो दो दिन बहार-ए-जाँ-फ़ज़ा दिखला गए
हसरत उन ग़ुंचों पे है जो बिन खिले मुरझा गए
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
जाँ-सिपारी दाग़ कत्था चूना है चश्म-ए-इन्तिज़ार
वास्ते मेहमान ग़म के दिल है बीड़ा पान का
सिराज औरंगाबादी
शेर
ख़ुदा रा बहर-ए-इस्तिक़बाल जल्द ऐ जान बाहर आ
अयादत को मिरी जान-ए-जहाँ तशरीफ़ लाते हैं
मर्दान अली खां राना
शेर
पड़ा है दैर-ओ-काबा में ये कैसा ग़ुल ख़ुदा जाने
कि वो पर्दा-नशीं बाहर न आ जाने न जा जाने
क़लक़ मेरठी
शेर
हज़ारों बार सींचा है इसे ख़ून-ए-रग-ए-जाँ से
तअ'ज्जुब है मिरे गुलशन की वीरानी नहीं जाती