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शेर
गरचे तुम ताज़ा गुल-ए-गुलशन-ए-रानाई हो
फिर भी ये ऐब है इक तुम में कि हरजाई हो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ
ऐसे पस-मंज़र में क्या रहना सर-ए-मंज़र तो आ
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
शेर
इतना भी बार-ए-ख़ातिर-ए-गुलशन न हो कोई
टूटी वो शाख़ जिस पे मिरा आशियाना था
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
शेर
ऐ बाग़बाँ नहीं तिरे गुलशन से कुछ ग़रज़
मुझ से क़सम ले छेड़ूँ अगर बर्ग-ओ-बर कहीं
बन्द्र इब्न-ए-राक़िम
शेर
बहार आई शगूफ़ा फूला खुला है तख़्ता हर इक चमन का
कहीं तमाशा है यासमन का कहीं नज़ारा है नस्तरन का
राजा जिया लाल बहादुर गुलशन
शेर
बहार-ए-गुलिस्ताँ हम को न पहचाने तअज्जुब है
गुलों के रुख़ पे छिड़का है बहुत ख़ून-ए-जिगर हम ने
सालिक लखनवी
शेर
हैं यादगार-ए-आलम-ए-फ़ानी ये दोनों चीज़
उस की जफ़ा और अपनी वफ़ा लिख रखेंगे हम