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शेर
लब-ए-नाज़ुक के बोसे लूँ तो मिस्सी मुँह बनाती है
कफ़-ए-पा को अगर चूमूँ तो मेहंदी रंग लाती है
आसी ग़ाज़ीपुरी
शेर
जो सारा दिन मिरे ख़्वाबों को रेज़ा रेज़ा करते हैं
मैं उन लम्हों को सी कर रात का बिस्तर बनाती हूँ
सरवत ज़ेहरा
शेर
जाँ-ब-लब लम्हा-ए-तस्कीं मिरी क़िस्मत है 'शमीम'
बे-ख़ुदी फिर मुझे दीवाना बनाती क्यूँ है
शख़ावत शमीम
शेर
मिरे जज़्बों को ये लफ़्ज़ों की बंदिश मार देती है
किसी से क्या कहूँ क्या ज़ात के अंदर बनाती हूँ
सरवत ज़ेहरा
शेर
अमल से ज़िंदगी बनती है जन्नत भी जहन्नम भी
ये ख़ाकी अपनी फ़ितरत में न नूरी है न नारी है
अल्लामा इक़बाल
शेर
मोहब्बत ही में मिलते हैं शिकायत के मज़े पैहम
मोहब्बत जितनी बढ़ती है शिकायत होती जाती है
शकील बदायूनी
शेर
सियह-बख़्ती में कब कोई किसी का साथ देता है
कि तारीकी में साया भी जुदा रहता है इंसाँ से