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शेर
शाम-ए-अवध ने ज़ुल्फ़ में गूँधे नहीं हैं फूल
तेरे बग़ैर सुब्ह-ए-बनारस उदास है
राम अवतार गुप्ता मुज़्तर
शेर
चराग़-ए-ज़िंदगी होगा फ़रोज़ाँ हम नहीं होंगे
चमन में आएगी फ़स्ल-ए-बहाराँ हम नहीं होंगे
अब्दुल मजीद सालिक
शेर
अख़तर मुस्लिमी
शेर
चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है
पात हरे हैं फूल खिले हैं कम-कम बाद-ओ-बाराँ है
मीर तक़ी मीर
शेर
वो सहरा जिस में कट जाते हैं दिन याद-ए-बहाराँ से
ब-अल्फ़ाज़-ए-दिगर उस को चमन कहना ही पड़ता है