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शेर
ज़र्बुल-मसल है होते हैं माशूक़ बे-वफ़ा
ये कुछ तुम्हारा ज़िक्र नहीं है ख़फ़ा न हो
मिर्ज़ा हादी रुस्वा
शेर
मुझ सा आशिक़ आप सा माशूक़ तब होवे नसीब
जब ख़ुदा इक दूसरा अर्ज़-ओ-समा पैदा करे
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
शेर
मोहब्बत को छुपाए लाख कोई छुप नहीं सकती
ये वो अफ़्साना है जो बे-कहे मशहूर होता है