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शेर
तुझ को पा कर भी न कम हो सकी बे-ताबी-ए-दिल
इतना आसान तिरे इश्क़ का ग़म था ही नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
मुझे इस ख़्वाब ने इक अर्से तक बे-ताब रक्खा है
इक ऊँची छत है और छत पर कोई महताब रक्खा है
ख़ावर एजाज़
शेर
ये आँखें ये दिमाग़ ये ज़ख़्मों का घर बदन
सब महव-ए-ख़्वाब हैं दिल-ए-बे-ताब के सिवा
उबैदुल्लह सिद्दीक़ी
शेर
इश्क़ का ज़ौक़-ए-नज़ारा मुफ़्त में बदनाम है
हुस्न ख़ुद बे-ताब है जल्वा दिखाने के लिए
असरार-उल-हक़ मजाज़
शेर
नहीं करते वो बातें आलम-ए-रूया में भी हम से
ख़ुशी के ख़्वाब भी देखें तो बे-ताबीर होते हैं
आग़ा हज्जू शरफ़
शेर
कुछ न देखा फिर ब-जुज़ यक शोला-ए-पुर-पेच-ओ-ताब
शम्अ' तक तो हम ने देखा था कि परवाना गया
मीर तक़ी मीर
शेर
पहले भी जहाँ पर बिछड़े थे वही मंज़िल थी इस बार मगर
वो भी बे-लौस नहीं लौटा हम भी बे-ताब नहीं आए
हिलाल फ़रीद
शेर
बे-मुरव्वत तुझे आज़ुर्दा करेंगे हम लोग
ये तिरी नाज़ुकी-ए-तब्अ की ईजाद हैं सब