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शेर
'शाइर' उन की दोस्ती का अब भी दम भरते हैं आप
ठोकरें खा कर तो सुनते हैं सँभल जाते हैं लोग
हिमायत अली शाएर
शेर
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
ज़ख़्म के भरते तलक नाख़ुन न बढ़ जावेंगे क्या
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
ऐसा क्या अंधेर मचा है मेरे ज़ख़्म नहीं भरते
लोग तो पारा पारा हो कर जुड़ जाते हैं लम्हे में
साइमा इसमा
शेर
हर तरफ़ ज़र्फ़-ए-वज़ू भरते हैं ज़ाहिद हुई सुब्ह
साथ उठ हम भी सुराही में मय-ए-नाब करें
क़ाएम चाँदपुरी
शेर
मिरी ख़ातिर से ये इक ज़ख़्म जो मिट्टी ने खाया है
ज़रा कुछ और ठहरो इस के भरते ही चले जाना