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शेर
कहीं शेर ओ नग़्मा बन के कहीं आँसुओं में ढल के
वो मुझे मिले तो लेकिन कई सूरतें बदल के
ख़ुमार बाराबंकवी
शेर
लोग कहते हैं कि फ़न्न-ए-शाइरी मनहूस है
शेर कहते कहते मैं डिप्टी कलेक्टर हो गया
कल्ब-ए-हुसैन नादिर
शेर
तह कर चुके बिसात-ए-ग़म-ओ-फ़िक्र-ए-रोज़गार
तब ख़ानक़ाह-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत में आए हैं
अमीर हम्ज़ा साक़िब
शेर
बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी
सो रहता है ब-अंदाज़-ए-चकीदन सर-निगूँ वो भी
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
शेर-ए-तर मेरे छलकते हुए साग़र हैं 'रियाज़'
फिर भी सब पूछते हैं आप ने मय पी कि नहीं
रियाज़ ख़ैराबादी
शेर
कैफ़ियत-ए-तज़ाद अगर हो न बयान-ए-शे'र में
'नातिक़' इसी पे रोए क्यूँ चंग-नवाज़ गाए क्यूँ
नातिक़ गुलावठी
शेर
हम से आबाद है ये शेर-ओ-सुख़न की महफ़िल
हम तो मर जाएँगे लफ़्ज़ों से किनारा कर के
हाशिम रज़ा जलालपुरी
शेर
क्यूँ शेर-ओ-शायरी को बुरा जानूँ 'मुसहफ़ी'
जिस शायरी ने आरिफ़-ए-कामिल किया मुझे