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शेर
खाए सो पछताए और पछताए वो भी जो न खाए
ये ग़म-ए-इश्क़-ए-बुताँ लड्डू है गोया बोर का
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता