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शेर
किसी ना-ख़्वांदा बूढ़े की तरह ख़त उस का पढ़ता हूँ
कि सौ सौ बार इक इक लफ़्ज़ से उँगली गुज़रती है
अतहर नफ़ीस
शेर
देखें तो क्यूँकर वो काफ़िर दर तक अपने न आवेगा
अब के होली में हम भी बूढ़े का साँग बनाते हैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
भला हम मिले भी तो क्या मिले वही दूरियाँ वही फ़ासले
न कभी हमारे क़दम बढ़े न कभी तुम्हारी झिजक गई