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शेर
ज़मीं से उट्ठी है या चर्ख़ पर से उतरी है
ये आग इश्क़ की या-रब किधर से उतरी है
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
शेर
तोड़े हैं बहुत शीशा-ए-दिल जिस ने 'नज़ीर' आह
फिर चर्ख़ वही गुम्बद-ए-मीनाई है कम-बख़्त
नज़ीर अकबराबादी
शेर
चर्ख़ को मद्द-ए-नज़र है खींचना पूरी शबीह
माह-ए-नौ तो सिर्फ़ ख़ाका है तिरी तस्वीर का
जलील मानिकपूरी
शेर
बरसों गुल-ए-ख़ुर्शीद ओ गुल-ए-माह को देखा
ताज़ा कोई दिखलाए हमें चर्ख़-ए-कुहन फूल
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
शेर
फ़िक्र-ए-तामीर में हूँ फिर भी मैं घर की ऐ चर्ख़
अब तलक तू ने ख़बर दी नहीं सैलाब के तईं
क़ाएम चाँदपुरी
शेर
बस नहीं चलता जो उस दम उन के ऊपर गर पड़े
आशिक़ ओ माशूक़ को जब एक जा पाता है चर्ख़