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शेर
तुम ही न सुन सके अगर क़िस्सा-ए-ग़म सुनेगा कौन
किस की ज़बाँ खुलेगी फिर हम न अगर सुना सके
हफ़ीज़ जालंधरी
शेर
क़िस्सा-ए-मजनूँ-ओ-फ़र्हाद भी इक पर्दा है
जो फ़साना है यहाँ शरह-ओ-बयाँ है अपना
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
सुना किस ने हाल मेरा कि जूँ अब्र वो न रोया
रखे है मगर ये क़िस्सा असर-ए-दुआ-ए-बाराँ
बन्द्र इब्न-ए-राक़िम
शेर
कहें हम बहर-ए-बे-पायान-ए-ग़म की माहियत किस से
न लहरों से कोई वाक़िफ़ न कोई थाह जाने है