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शेर
आँख चुरा रहा हूँ मैं अपने ही शौक़-ए-दीद से
जल्वा-ए-हुस्न-ए-बे-पनाह तू ने ये क्या दिखा दिया
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
मुसाफ़िराना रहा इस सरा-ए-हस्ती में
चला फिरा मैं ज़माने में रहगुज़र की तरह