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शेर
दश्त-ए-जुनूँ में आ गईं आँखें जो उन की याद
भागा में ख़ाक डाल के चश्म-ए-ग़ज़ाल में
वज़ीर अली सबा लखनवी
शेर
सुराही-ए-मय-ए-नाब-ओ-सफीना-हा-ए-ग़ज़ल
ये हर्फ़-ए-हुस्न-ए-मुक़द्दर लिखा है किस के लिए
अकबर अली खान अर्शी जादह
शेर
किस के बदन की नर्मियाँ हाथों को गुदगुदा गईं
दश्त-ए-फ़िराक़-ए-यार को पहलू-ए-यार कर दिया
आतिफ़ वहीद यासिर
शेर
हूँ तिश्ना-काम-ए-दश्त-ए-शहादत ज़ि-बस कि मैं
गिरता हूँ आब-ए-ख़ंजर-ओ-शमशीर देख कर
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
शेर
एक दश्त-ए-ला-मकाँ फैला है मेरे हर तरफ़
दश्त से निकलूँ तो जा कर किन ठिकानों में रहूँ