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शेर
एक दश्त-ए-ला-मकाँ फैला है मेरे हर तरफ़
दश्त से निकलूँ तो जा कर किन ठिकानों में रहूँ
मुनीर नियाज़ी
शेर
जब नबी-साहिब में कोह-ओ-दश्त से आई बसंत
कर के मुजरा शाह-ए-मर्दां की तरफ़ धाई बसंत
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
पीछे पड़ी हैं दिल के बे-तरह मेरी आँखें
क्या जाने क्या करेंगी दरिया-ए-ख़ूँ बहा कर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
बे-समर पेड़ों को चूमेंगे सबा के सब्ज़ लब
देख लेना ये ख़िज़ाँ बे-दस्त-ओ-पा रह जाएगी
अमजद इस्लाम अमजद
शेर
ख़याल-ए-नाफ़ में ज़ुल्फ़ों ने मुश्कीं बाँध दीं मेरी
शनावर किस तरह गिर्दाब से बे-दस्त-ओ-पा निकले