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बड़ न कह बात को तीं हज़रत-ए-'क़ाएम' की कि वोमस्त-ए-अल्लाह हैं क्या जानिए क्या कहते हैं
पास-ए-इख़्लास सख़्त है तकलीफ़ता-कुजा ख़ातिर-ए-वज़ी-ओ-शरीफ़
गर्म कर दे तू टुक आग़ोश में आमारे जाड़े के ठिरे बैठे हैं
'क़ाएम' मैं रेख़्ता को दिया ख़िलअत-ए-क़ुबूलवर्ना ये पेश-ए-अहल-ए-हुनर क्या कमाल था
कर न जुरअत तू ऐ तबीब कि येदिल का धड़का है इख़्तिलाज नहीं
ऐ इश्क़ मिरे दोश पे तू बोझ रख अपनाहर सर मुतहम्मिल नहीं इस बार-ए-गिराँ का
दिल से बस हाथ उठा तू अब ऐ इश्क़देह-ए-वीरान पर ख़िराज नहीं
चाहिए आदमी हो बार-ए-तअल्लुक़ से बरीक्यूँकि बेगानों के याँ बोझ को ख़र ढोते हैं
बिना थी ऐश-ए-जहाँ की तमाम ग़फ़लत परखुली जो आँख तो गोया कि एहतेलाम हुआ
वहशत-ए-दिल कोई शहरों में समा सकती हैकाश ले जाए जुनूँ सू-ए-बयाबाँ मुझ को
की वफ़ा किस से भला फ़ाहिशा-ए-दुनिया नेहै तुझे शौक़ जो इस क़हबा की दामादी का
डहा खड़ा है हज़ारों जगह से क़स्र-ए-वजूदबताऊँ कौन सी उस की मैं उस्तुवार तरफ़
पहले ही अपनी कौन थी वाँ क़द्र-ओ-मंज़िलतपर शब की मिन्नतों ने डुबो दी रही सही
दर्द-ए-दिल क्यूँ-कि कहूँ मैं उस सेहर तरफ़ लोग घिरे बैठे हैं
इलाही वाक़ई इतना ही बद है फ़िस्क़-ओ-फ़ुजूरपर इस मज़े को समझता जो तू बशर होता
हाथों से दिल ओ दीदा के आया हूँ निपट तंगआँखों को रोऊँ या मैं करूँ सरज़निश-ए-दिल
टूटा जो काबा कौन सी ये जा-ए-ग़म है शैख़कुछ क़स्र-ए-दिल नहीं कि बनाया न जाएगा
अहल-ए-मस्जिद ने जो काफ़िर मुझे समझा तो क्यासाकिन-ए-दैर तो जाने हैं मुसलमाँ मुझ को
मय पी जो चाहे आतिश-ए-दोज़ख़ से तू नजातजलता नहीं वो उज़्व जो तर हो शराब में
याँ तलक ख़ुश हूँ अमारिद से कि ऐ रब्ब-ए-करीमकाश दे हूर के बदले भी तू ग़िल्माँ मुझ को
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