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शेर
अलग अलग तासीरें इन की, अश्कों के जो धारे हैं
इश्क़ में टपकें तो हैं मोती, नफ़रत में अंगारे हैं
अजमल सिद्दीक़ी
शेर
धारे से कभी कश्ती न हटी और सीधी घाट पर आ पहुँची
सब बहते हुए दरियाओं के क्या दो ही किनारे होते हैं
आरज़ू लखनवी
शेर
अपनी ज़िंदगानी के तुंद-ओ-तेज़-रौ धारे
कुछ मिज़ाज-ए-दिलबर की बरहमी से मिलते हैं
जयकृष्ण चौधरी हबीब
शेर
ठिकाना पूछते हैं सब तुम्हारा मुझ से आ आ कर
कोई तस्वीर दो ऐसी लगा दूँ मैं दर-ए-दिल पर
जलील मानिकपूरी
शेर
आख़िर गिल अपनी सर्फ़-ए-दर-ए-मय-कदा हुई
पहुँचे वहाँ ही ख़ाक जहाँ का ख़मीर हो