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शेर
हुज़ूर-ए-दुख़्तर-ए-रज़ हाथ पाँव काँपते हैं
तमाम मस्तों को रअशा है रू-ब-रू-ए-शराब
मुनीर शिकोहाबादी
शेर
ऐ 'ज़ौक़' देख दुख़्तर-ए-रज़ को न मुँह लगा
छुटती नहीं है मुँह से ये काफ़र लगी हुई
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
दुख़्तर-ए-रज़ तो है बेटी सी तिरे ऊपर हराम
रिंद इस रिश्ते से सारे तिरे दामाद हैं शैख़
क़ाएम चाँदपुरी
शेर
न बंद कर इसे फ़स्ल-ए-बहार में साक़ी
न डाल दुख़्तर-ए-रज़ का अचार शीशे में
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
शेर
दुख़्तर-ए-रज़ ने दिए छींटे कुछ ऐसे साक़िया
पानी पानी हो गई तौबा हर इक मय-ख़्वार की
जलील मानिकपूरी
शेर
दुख़्तर-ए-रज़ की हूँ सोहबत का मुबाशिर क्यूँ-कर
अभी कम-सिन है बहुत मर्द से शरमाती है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
सुना है मोहतसिब भी ताक में है दुख़्तर-ए-रज़ की
इलाही रख ले तू हुर्मत शराब-ए-अर्ग़वानी की
मोहसिन काकोरवी
शेर
किया है मिल के दोनों ने जो रुस्वा दुख़्तर-ए-रज़ को
खिंची बैठी है शीशे से भरी बैठी है साग़र से
जलील मानिकपूरी
शेर
इतनी बे-शर्म-ओ-हया हो गई क्यूँ दुख़्तर-ए-रज़
आँखें बाज़ार में यूँ उस को न मटकाना था