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शेर
अगर मज़हब ख़लल-अंदाज़ है मुल्की मक़ासिद में
तो शैख़ ओ बरहमन पिन्हाँ रहें दैर ओ मसाजिद में
अकबर इलाहाबादी
शेर
हैं शैख़ ओ बरहमन तस्बीह और ज़ुन्नार के बंदे
तकल्लुफ़ बरतरफ़ आशिक़ हैं अपने यार के बंदे
ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी
शेर
जवानो नज़्र दे दो अपने ख़ून-ए-दिल का हर क़तरा
लिखा जाएगा हिन्दोस्तान को फ़रमान-ए-आज़ादी
नाज़िश प्रतापगढ़ी
शेर
मोहब्बत है अज़ल के दिन से शामिल मेरी फ़ितरत में
बिला तफ़रीक़ शैख़ ओ बरहमन से इश्क़ है मुझ को
अनवर साबरी
शेर
जो है काबा वो ही बुत-ख़ाना है शैख़ ओ बरहमन
इस की नाहक़ करते हो तकरार दोनों एक हैं
जोशिश अज़ीमाबादी
शेर
ताब-ओ-ताक़त रहे क्या ख़ाक कि आज़ा के तईं
हाकिम-ए-ज़ोफ़ से फ़रमान-ए-तग़ईरी आया
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
तुम्हें समझाएँ तो क्या हम कि शैख़-ए-वक़्त हो माइल
तुम अपने आप को देखो और इक तिफ़्ल-ए-बरहमन को
मिर्ज़ा मायल देहलवी
शेर
चराग़-ए-का'बा-ओ-दैर एक सा है चश्म-ए-हक़-बीं में
'मुहिब' झगड़ा है कोरी के सबब शैख़ ओ बरहमन का
वलीउल्लाह मुहिब
शेर
रंग-ए-गुल-ए-शगुफ़्ता हूँ आब-ए-रुख़-ए-चमन हूँ मैं
शम-ए-हरम चराग़-ए-दैर क़श्क़ा-ए-बरहमन हूँ मैं
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
शेर
जो कह रहे थे ख़ून से सींचेंगे गुल्सिताँ
वो हामियान-ए-फ़स्ल-ए-बहाराँ किधर गए