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शेर
हुजूम-ए-रंज-ओ-ग़म-ओ-दर्द है मरूँ क्यूँकर
क़दम उठाऊँ जो आगे कुशादा राह मिले
मुंशी देबी प्रसाद सहर बदायुनी
शेर
हुजूम-ए-रंज-ओ-ग़म ने इस क़दर मुझ को रुलाया है
कि अब राहत की सूरत मुझ से पहचानी नहीं जाती
जगदीश सहाय सक्सेना
शेर
एहतिशामुल हक़ सिद्दीक़ी
शेर
हक़्क़-ए-मेहनत उन ग़रीबों का समझते गर अमीर
अपने रहने का मकाँ दे डालते मज़दूर को
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
शेर
रंज-ओ-ग़म ठोकरें मायूसी घुटन बे-ज़ारी
मेरे ख़्वाबों की ये ता'बीर भी हो सकती है