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शेर
पौ फटते ही 'रियाज़' जहाँ ख़ुल्द बन गया
ग़िल्मान-ए-महर साथ लिए आई हूर-ए-सुब्ह
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
क्या आई थीं हूरें तिरे घर रात को मेहमाँ
कल ख़्वाब में उजड़ा हुआ फ़िरदौस-ए-बरीं था
अहमद हुसैन माइल
शेर
इक माँ के दम से ज़ीस्त में रौनक़ थी बरक़रार
अब वो नहीं तो रौनक़-ए-बज़्म-ए-जहाँ नहीं
डॉ. जाफ़र अस्करी
शेर
की दिल ने दिल-बरान-ए-जहाँ की बहुत तलाश
कुइ दिल-रुबा मिला है न दिल-ख़्वाह क्या करे