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शेर
हँस के कहता है मुसव्विर से वो ग़ारत-गर-ए-होश
जैसी सूरत है मिरी वैसी ही तस्वीर भी हो
मिर्ज़ा हादी रुस्वा
शेर
नहीं वो हम कि कहने से तिरे हर बुत के बंदे हों
करे पैदा भी गर नासेह तू उस ग़ारत-गर-ए-दीं सा
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
शेर
कई चाँद थे सर-ए-आसमाँ कि चमक चमक के पलट गए
न लहू मिरे ही जिगर में था न तुम्हारी ज़ुल्फ़ सियाह थी
अहमद मुश्ताक़
शेर
तू ने ग़ारत किया घर बैठे घर इक आलम का
ख़ाना आबाद हो तेरा ऐ मिरे ख़ाना-ख़राब
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
तेरे घर आएँ तो ईमान को किस पर छोड़ें
हम तो काबे ही में ऐ दुश्मन-ए-दीं अच्छे हैं