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शेर
शायद लोग इसी रौनक़ को गर्मी-ए-महफ़िल कहते हैं
ख़ुद ही आग लगा देते हैं हम अपनी तन्हाई को
शहज़ाद अहमद
शेर
क़ुलक़ुल-ए-मीना सदा नाक़ूस की शोर-ए-अज़ाँ
ठंडे ठंडे दीदनी है गर्मी-ए-बाज़ार-ए-सुब्ह
रियाज़ ख़ैराबादी
शेर
मैं अज़ल से सुब्ह-ए-महशर तक फ़रोज़ाँ ही रहा
हुस्न समझा था चराग़-ए-कुश्ता-ए-महफ़िल मुझे