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शेर
तीन हिस्से हैं ज़मीं के ग़र्क़-ए-दरिया-ए-मुहीत
रुबअ मस्कों में कुछ आबादी है कुछ वीराना है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
आसाँ नहीं दरिया-ए-मोहब्बत से गुज़रना
याँ नूह की कश्ती को भी तूफ़ान का डर है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
हवस हम पार होएँ क्यूँकि दरिया-ए-मोहब्बत से
क़ज़ा ने बादबान-ए-कशती-ए-तदबीर को तोड़ा
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
शेर
तह में दरिया-ए-मोहब्बत के थी क्या चीज़ 'अज़ीज़'
जो कोई डूब गया उस को उभरने न दिया
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
शेर
मंजधार में नाव डूब गई तो मौजों से आवाज़ आई
दरिया-ए-मोहब्बत से 'कौसर' यूँ पार उतारा करते हैं
कौसर नियाज़ी
शेर
आले रज़ा रज़ा
शेर
किसी के संग-ए-दर से एक मुद्दत सर नहीं उट्ठा
मोहब्बत में अदा की हैं नमाज़ें बे-वुज़ू बरसों
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
तुम भी थे सरशार मैं भी ग़र्क-ए-बहर-ए-रंग-ओ-बू
फिर भला दोनों में आख़िर ख़ुद-कशीदा कौन था