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शेर
बड़े गुस्ताख़ हैं झुक कर तिरा मुँह चूम लेते हैं
बहुत सा तू ने ज़ालिम गेसुओं को सर चढ़ाया है
अज्ञात
शेर
ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
कि बढ़ चले हैं अब इन गेसुओं के भी साए
हफ़ीज़ होशियारपुरी
शेर
तुम जिसे समझे हो दुनिया उस के आँचल के तले
गेसुओं के पेच और ख़म के सिवा कुछ भी नहीं
चन्द्रभान ख़याल
शेर
जो दिल-नशीं हो किसी के तो इस का क्या कहना
जगह नसीब से मिलती है दिल के गोशों में
मुबारक अज़ीमाबादी
शेर
ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े
हुस्न की सरकार में जितने बढ़े हिन्दू बढ़े
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
रुख़-ए-रौशन पे उस की गेसू-ए-शब-गूँ लटकते हैं
क़यामत है मुसाफ़िर रास्ता दिन को भटकते हैं
भारतेंदु हरिश्चंद्र
शेर
मैं तो हर हर ख़म-ए-गेसू की तलाशी लूँगा
कि मिरा दिल है तिरे गेसू-ए-ख़मदार के पास