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शेर
शौक़ बरहना-पा चलता था और रस्ते पथरीले थे
घिसते घिसते घिस गए आख़िर कंकर जो नोकीले थे
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
शेर
उँगलियाँ घिस गईं याँ हाथों को मलते मलते
लेकिन अफ़्सोस नविश्ता न मिटा क़िस्मत का
सनाउल्लाह फ़िराक़
शेर
ख़ुदा को जिस से पहुँचें हैं वो और ही राह है ज़ाहिद
पटकते सर तिरी गो घिस गई सज्दों से पेशानी
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
इसी से आशिक़ों की फ़ौज का अंदाज़ा कर लीजे
हुआ दो चार दिन में घिस-घिसा कर संग-ए-दर ग़ाएब
नाज़िर टोंकी
शेर
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
अक़्ल में जो घिर गया ला-इंतिहा क्यूँकर हुआ
जो समा में आ गया फिर वो ख़ुदा क्यूँकर हुआ
अकबर इलाहाबादी
शेर
तुम्हारी मस्लहत अच्छी कि अपना ये जुनूँ बेहतर
सँभल कर गिरने वालो हम तो गिर गिर कर सँभले हैं
आल-ए-अहमद सुरूर
शेर
आख़िर गिल अपनी सर्फ़-ए-दर-ए-मय-कदा हुई
पहुँचे वहाँ ही ख़ाक जहाँ का ख़मीर हो