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शेर
अज़-बस-कि तू प्यारा है मुझे तेरे सिवा यार
सौगंद में खाता नहीं वल्लाह किसी की
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
काम अज़-बस-कि ज़माने का हुआ है बर-अक्स
चोर खिंचवाए है इस अहद में कोतवाल की खाल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
'मुसहफ़ी' मैं हूँ अब और जामा-ए-उर्यानी है
था कभी चाक-ए-मलामत से गरेबाँ आबाद
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
अदम वालों की सोहबत से भी नफ़रत हो गई अब तो
कोई वीराना अब सू-ए-अदम आबाद करते हैं