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शेर
ज़ख़्म पे ज़ख़्म खा के जी अपने लहू के घूँट पी
आह न कर लबों को सी इश्क़ है दिल-लगी नहीं
एहसान दानिश
शेर
रुख़-ए-रौशन पे उस की गेसू-ए-शब-गूँ लटकते हैं
क़यामत है मुसाफ़िर रास्ता दिन को भटकते हैं
भारतेंदु हरिश्चंद्र
शेर
कोई नालाँ कोई गिर्यां कोई बिस्मिल हो गया
उस के उठते ही दिगर-गूँ रंग-ए-महफ़िल हो गया
अबुल कलाम आज़ाद
शेर
मैं किस ज़बान में उस को कहाँ तलाश करूँ
जो मेरी गूँज का लफ़्ज़ों से तर्जुमा कर दे