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शेर
ये ज़माना वो है जिस में हैं बुज़ुर्ग ओ ख़ुर्द जितने
उन्हें फ़र्ज़ हो गया है गिला-ए-हयात करना
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
ऐ 'ज़ौक़' देख दुख़्तर-ए-रज़ को न मुँह लगा
छुटती नहीं है मुँह से ये काफ़र लगी हुई
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
नाज़ है गुल को नज़ाकत पे चमन में ऐ 'ज़ौक़'
उस ने देखे ही नहीं नाज़-ओ-नज़ाकत वाले
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
ऐ 'ज़ौक़' वक़्त नाले के रख ले जिगर पे हाथ
वर्ना जिगर को रोएगा तू धर के सर पे हाथ
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
एक पत्थर पूजने को शैख़ जी काबे गए
'ज़ौक़' हर बुत क़ाबिल-ए-बोसा है इस बुत-ख़ाने में
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
पीर-ए-मुग़ाँ के पास वो दारू है जिस से 'ज़ौक़'
नामर्द मर्द मर्द-ए-जवाँ-मर्द हो गया
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
फ़र्बा-तनी की फ़िक्र में नादाँ हैं रोज़-ओ-शब
आख़िर को जानते नहीं है ये ग़िज़ा-ए-मर्ग