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शेर
दिल-ए-ग़म-गीं की कुछ महवीय्यतें ऐसी भी होती हैं
कि तेरी याद का आना भी ऐसे में खटकता है
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
ये सानेहे दिल-ए-ग़म-गीं हुआ ही करते हैं
न इश्क़ ही की ख़ता है न हुस्न ही का क़ुसूर
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
वस्ल के दो-चार लम्हे रोज़ गिन गिन देखना
रह गया था ज़िंदगी में क्या यही दिन देखना