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शेर
सबक़ आ के गोर-ए-ग़रीबाँ से ले लो
ख़मोशी मुदर्रिस है इस अंजुमन में
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
शेर
शमएँ अफ़्सुर्दा जहाँ फूल हैं पज़मुर्दा जहाँ
दिल को उस गोर-ए-ग़रीबाँ में पुकारा होता
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
शेर
उदासी अब किसी का रंग जमने ही नहीं देती
कहाँ तक फूल बरसाए कोई गोर-ए-ग़रीबाँ पर
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
शेर
जिन्हें अब गर्दिश-ए-अफ़्लाक पैदा कर नहीं सकती
कुछ ऐसी हस्तियाँ भी दफ़्न हैं गोर-ए-ग़रीबाँ में
मख़मूर देहलवी
शेर
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
पछताए हम इस शाम-ए-ग़रीबाँ से निकल कर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
ने हाथ मिरा हाथ है ने जेब मिरी जेब
क्या दस्त ओ गरेबाँ को कहूँ दस्त ओ गरेबाँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
गरेबाँ चाक है हाथों में ज़ालिम तेरा दामाँ है
कि इस दामन तलक ही मंज़िल-ए-चाक-ए-गरेबाँ है