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शेर
तुफ़ैल-ए-रूह मिरा जिस्म-ए-ज़ार बाक़ी है
हुआ के दम से ये मुश्त-ए-ग़ुबार बाक़ी है
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
शेर
शकील जाज़िब
शेर
ज़मानों को उड़ानें बर्क़ को रफ़्तार देता था
मगर मुझ से कहा ठहरे हुए शाम-ओ-सहर ले जा
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
शेर
बारा-वफ़ातें बीसवीं झड़ियाँ हैं सौ जगह
ऐ ख़ानमाँ-ख़राब जो मिलना है मिल कहीं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
शबाब-ए-हुस्न है बर्क़-ओ-शरर की मंज़िल है
ये आज़माइश-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र की मंज़िल है