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शेर
तू ने ही रह न दिखाई तो दिखाएगा कौन
हम तिरी राह में गुमराह हुए बैठे हैं
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर
शेर
जो अज़-ख़ुद-रफ़्ता है गुमराह है वो रहनुमा मेरा
जो इक आलम से है बेगाना है वो आश्ना मेरा
वलीउल्लाह मुहिब
शेर
उस के कूचे ही में आ निकलूँ हूँ जाऊँ जिस तरफ़
मैं तो दीवाना हूँ अपने इस दिल-ए-गुमराह का
वलीउल्लाह मुहिब
शेर
नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर
तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में