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शेर
शहीदान-ए-वफ़ा की मंक़बत लिखते रहे लेकिन
न की अर्ज़ी ख़ुदाओं की कभी हम्द-ओ-सना हम ने
अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद
शेर
आलम इस कारगह-ए-सन'अ का है तुर्फ़ा कि याँ
नक़्श बनने नहीं पाता कि मिटा देते हैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
मुझे जब मार ही डाला तो अब दोनों बराबर हैं
उड़ाओ ख़ाक सरसर बन के या बाद-ए-सबा बन कर
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
उसी दिन से मुझे दोनों की बर्बादी का ख़तरा था
मुकम्मल हो चुके थे जिस घड़ी अर्ज़-ओ-समा बन कर