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शेर
क़द्र मुझ रिंद की तुझ को नहीं ऐ पीर-ए-मुग़ाँ
तौबा कर लूँ तो कभी मय-कदा आबाद न हो
रियाज़ ख़ैराबादी
शेर
पीर-ए-मुग़ाँ के पास वो दारू है जिस से 'ज़ौक़'
नामर्द मर्द मर्द-ए-जवाँ-मर्द हो गया
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
मोहतसिब भी पी के मय लोटे है मयख़ाने में आज
हाथ ला पीर-ए-मुग़ाँ ये लौटने की जाए है
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
शेर
हम-दिगर मोमिन को है हर बज़्म में तकफ़ीर-ए-जंग
नेक सुल्ह-ए-कुल है बद है बा-जवान-ओ-पीर-ए-जंग
वलीउल्लाह मुहिब
शेर
मुझ से जो मेरी ज़ोहरा मिलती नहीं है अब तक
ऐ पीर-ए-चर्ख़ सब ये बद-ज़ातियाँ हैं तेरी
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
बहार आते ही टकराने लगे क्यूँ साग़र ओ मीना
बता ऐ पीर-ए-मय-ख़ाना ये मय-ख़ानों पे क्या गुज़री
जगन्नाथ आज़ाद
शेर
हुज़ूर-ए-दुख़्तर-ए-रज़ हाथ पाँव काँपते हैं
तमाम मस्तों को रअशा है रू-ब-रू-ए-शराब
मुनीर शिकोहाबादी
शेर
अगर तेरी तरह तब्लीग़ करता पीर-ए-मय-ख़ाना
तो दुनिया-भर में वाइज़ मय-कशी ही मय-कशी होती
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
शेर
मिरे दिल में है कि पूछूँ कभी मुर्शिद-ए-मुग़ाँ से
कि मिला जमाल-ए-साक़ी को ये तनतना कहाँ से