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शेर
आ के सलासिल ऐ जुनूँ क्यूँ न क़दम ले ब'अद-ए-क़ैस
उस का भी हम ने सिलसिला अज़-सर-ए-नौ बपा किया
शाह नसीर
शेर
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
हर्फ़-ए-इंकार है क्यूँ नार-ए-जहन्नम का हलीफ़
सिर्फ़ इक़रार पे क्यूँ बाब-ए-इरम खुलता है
वहीद अख़्तर
शेर
क्यूँ न आ कर उस के सुनने को करें सब यार भीड़
'आबरू' ये रेख़्ता तू नीं कहा है धूम का
आबरू शाह मुबारक
शेर
झुर्रियाँ क्यूँ न पड़ें उम्र-ए-फ़ुज़ूँ में मुँह पर
तन पे जब लाए शिकन पीर-ए-कुहन-साल की खाल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
आमद-ओ-शुद कूचे में हम उस के क्यूँ न करें मानिंद-ए-नफ़स
ज़िंदगी अपनी जानते हैं इस वास्ते आते जाते हैं