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शेर
अब तो जो शय है मिरी नज़रों में है ना-पाएदार
याद आया मैं कि ग़म को जावेदाँ समझा था मैं
हबीब अहमद सिद्दीक़ी
शेर
ज़िंदगी-ए-दो-रोज़ा से करते हैं वज़्अ जन्नतें
हम को बहुत है ये जहाँ जन्नत-ए-जावेदाँ न दे
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
कुछ बदन के थे तक़ाज़े कुछ शरारत दिल की थी
आज लेकिन इश्क़ अपना जावेदाँ होने को था