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शेर
जन्नत-ए-सूफ़िया निसार दहर की मुश्त-ए-ख़ाक पर
आशिक़-ए-अर्ज़-ए-पाक को दावत-ए-ला-मकाँ न दे
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
वो शबनम का सुकूँ हो या कि परवाने की बेताबी
अगर उड़ने की धुन होगी तो होंगे बाल-ओ-पर पैदा
इक़बाल सुहैल
शेर
ये मस्जिद है ये मय-ख़ाना तअ'ज्जुब इस पर आता है
जनाब-ए-शैख़ का नक़्श-ए-क़दम यूँ भी है और यूँ भी
साइल देहलवी
शेर
कहा मैं ने कि जन्नत पर रज़ा-ए-दोस्त फ़ाइक़ है
रज़ा-ए-दोस्त बोली बे-ख़बर मैं ही तो जन्नत हूँ
ज़ाहिदा खातून ज़ाहिदा
शेर
ढला है हुस्न लेकिन रंग है रुख़्सार-ए-जानाँ पर
अभी बाक़ी है कुछ कुछ धूप दीवार-ए-गुलिस्ताँ पर
अज्ञात
शेर
बहुत हैं सज्दा-गाहें पर दर-ए-जानाँ नहीं मिलता
हज़ारों देवता हैं हर तरफ़ इंसाँ नहीं मिलता