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शेर
'सबा' हम ने तो हरगिज़ कुछ न देखा जज़्ब-ए-उल्फ़त में
ग़लत ये बात कहते हैं कि दिल को राह है दिल से
लाल कांजी मल सबा
शेर
जिस क़दर जज़्ब-ए-मोहब्बत का असर होता गया
इश्क़ ख़ुद तर्क ओ तलब से बे-ख़बर होता गया
क़मर मुरादाबादी
शेर
अभी तो कुछ ख़लिश सी हो रही है चंद काँटों से
इन्हीं तलवों में इक दिन जज़्ब कर लूँगा बयाबाँ को
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
ये एहतिजाज अजब है ख़िलाफ़-ए-तेग़-ए-सितम
ज़मीं में जज़्ब नहीं हो रहा है ख़ूँ मेरा
क़मर अब्बास क़मर
शेर
देख ये जज़्ब-ए-मोहब्बत का करिश्मा तो नहीं
कल जो तेरे दिल में था वो आज मेरे दिल में है
सरवर आलम राज़
शेर
क्या जज़्ब-ए-इश्क़ मुझ से ज़ियादा था ग़ैर में
उस का हबीब उस से जुदा क्यूँ नहीं हुआ
इरफ़ान सिद्दीक़ी
शेर
मिरी ज़िंदगी का महवर यही सोज़-ओ-साज़-ए-हस्ती
कभी जज़्ब-ए-वालहाना कभी ज़ब्त-ए-आरिफ़ाना
फ़ारूक़ बाँसपारी
शेर
ये मेरे जज़्ब-ए-निहाँ का है मोजज़ा शायद
कि दिल में झाँक के देखूँ तो तू ही तू निकले
ख़ावर लुधियानवी
शेर
लैला चली थी हज के लिए जज़्ब-ए-इश्क़ से
नाक़ा मचल के नज्द की मंज़िल में रह गया
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
जब उस बे-मेहर को ऐ जज़्ब-ए-दिल कुछ जोश आता है
मह-ए-नौ की तरह खोले हुए आग़ोश आता है